मौज-ए-ख़याल-ए-यार ग़म-ए-आसार आई है क्यूँ चाहतों के बीच ये दीवार आई है इक बूँद हाथ आई है पत्थर निचोड़ कर आँखों से लब पे क़ुव्वत-ए-इज़हार आई है हम दुश्मनों में अपनी ज़बाँ हार आए हैं जब हाथ कट चुके हैं तो तलवार आई है क्यूँ आसमाँ ने दस्त-ए-तही फिर किया दराज़ क्यूँ धूप ज़ेर-ए-साया-ए-दीवार आई है सूरज झुलस गया है हर इक शाख़-ए-जिस्म-ओ-जाँ दिन ढल गया तो घर में शब-ए-तार आई है बे-सौत था 'मुजीबी' हर इक नग़्मा-ए-ख़याल टूटा जो दिल तो साज़ की झंकार आई है