मौला किसी को ऐसा मुक़द्दर न दीजियो दिलबर नहीं तो फिर कोई दीगर न दीजियो अपने सवाल सहल न लगने लगें उसे आते भी हों जवाब तो फ़र-फ़र न दीजियो चादर वो दीजियो उसे जिस पर शिकन न आए जिस पर शिकन न आए वो बिस्तर न दीजियो आए न कार-ए-शुक्र-गुज़ारी पे कोई हर्फ़ जब दीजियो तो ज़र्फ़ से बढ़ कर न दीजियो बिखराओ कुछ नहीं भी सिमटते मिरे अज़ीज़ अपने किसी ख़याल को पैकर न दीजियो तफ़रीक़ रहने दीजियो तारीफ़-ओ-तंज़ में अब के शराब ज़हर मिला कर न दीजियो या दिल से तर्क कीजियो दस्तार का ख़याल या उस मुआ'मले में कभी सर न दीजियो कहियो कि तू ने ख़ूब बनाई है काएनात लेकिन उसे लिखाई के नंबर न दीजियो मेआ'र से सिवा यहाँ रफ़्तार चाहिए 'जव्वाद' उस को आख़िरी ओवर न दीजियो