मौसम है बहारों का हर इक ज़ख़्म हरा है एहसास-ए-ग़म-ए-सोज़-ए-दरूँ जाग उठा है बढ़ जाए न बेताबी-ए-दिल सब्र की हद से गुज़रे हुए लम्हों ने तुम्हें याद किया है बदमस्त फ़ज़ाओं में बिखरती हुई ख़ुशबू ऐ दोस्त ये शायद तिरे आने का पता है इक तुम से ही दिल को मिरे मिल जाती है ढारस वर्ना यहाँ हर शख़्स बहुत मुझ से ख़फ़ा है अपनों ने ही दी है मुझे हर मोड़ पे ठोकर नाज़ुक था मिरा शीशा-ए-दिल टूट गया है अब भूल गया आरिज़-ओ-लब गेसू-ओ-अबरू होंटों का तबस्सुम तिरे बस याद रहा है सुनते हैं सियह-रातों में लूटे गए सब लोग 'बिस्मिल' तो मगर दिन के उजाले में लुटा है