मौसम के बदलने का कुछ अंदाज़ा भी होता जब घर ही बनाया था तो दरवाज़ा भी होता हम शेर-ए-नमक-रेज़ सुनाते सर-ए-महफ़िल जो ज़ख़्म फ़सुर्दा था तर-ओ-ताज़ा भी होता तुम होते तो मेराज-ए-ख़यालात भी होती बिखरे हुए अल्फ़ाज़ का शीराज़ा भी होता जज़्बात की आँखों में चमकता कोई शोला एहसास के रुख़्सार पे कुछ ग़ाज़ा भी होता रक़्क़ासा-ए-दीरोज़ भी बे-पैरहन आती दोशीज़ा-ए-इम्कान का ख़म्याज़ा भी होता