मौसम-ए-गुल में जो घिर घिर के घटाएँ आईं होश उड़ जाते हैं जिन से वो हवाएँ आईं चल बसे सू-ए-अदम तुम ने बुलाया जिन को याद आई तो ग़रीबों की क़ज़ाएँ आईं रूह ताज़ी हुई तुर्बत में वो ठंडी ठंडी बाग़-ए-फ़िरदौस की हर सू से हवाएँ आईं मैं वो दीवाना था जिस के लिए बज़्म-ए-ग़म में जा-ब-जा बिछने को परियों की रिदाएँ आईं मुंकिर-ए-ज़ुल्म जो जल्लाद हुए महशर में ख़ुद गवाही के लिए सब की जफ़ाएँ आईं मुजरिमों ही को नहीं ज़ुल्म का फ़रमान आया बे-गुनाहों को भी लिख लिख के सज़ाएँ आईं उस का दीवाना हूँ समझाती हैं परियाँ मुझ को सर फिराने को कहाँ से ये बलाएँ आईं तिरे बंदे हुए की जिन से लगावट तू ने ऐ परी-रू तुझे क्यूँकर ये अदाएँ आईं हश्र मौक़ूफ़ किया जोश में रहमत आई ज़ार नाले की जो हर सू से सदाएँ आईं लश्कर-ए-गुल जो गुलिस्ताँ में ख़िज़ाँ पर उमडा साथ देने को पहाड़ों से घटाएँ आईं मेरी तुर्बत पे कभी धूप न आने पाए शाम तक सुब्ह से घिर घिर के घटाएँ आईं मुँह छुपाने लगे मा'शूक़ जवाँ हो हो कर नेक-ओ-बद की समझ आई तो हयाएँ आईं ख़ाक उड़ाने जो सबा आई मिरी तुर्बत पर सर पटकती हुई रोने को घटाएँ आईं बख़्श दी उस ने मिरे ब'अद जो पोशाक मिरी क़ैस ओ फ़रहाद के हिस्सों में क़बाएँ आईं राहतें समझे हसीनों ने जो ईज़ाएँ दीं प्यार आया तो पसंद उन की जफ़ाएँ आईं आ गया रहम उसे दीं सब की मुरादें उस ने आजिज़ों की जो सिफ़ारिश को दुआएँ आईं मेरे सहरा की ज़ियारत को हज़ारों परियाँ रोज़ ले ले के सुलैमान को रज़ाएँ आईं ऐ 'शरफ़' हुस्न-परस्तों को बुला के लूटा इन हसीनों के दिलों में जो दग़ाएँ आईं