ये आरज़ू हैं हम कोई आरज़ू करते असीर ख़ुद को न हम दाम-ए-रंग-ओ-बू करते इ'ताब-बीं जो हमारे हैं नुक्ता-चीं हम पर कहीं जो मिलते तो हम खुल के गुफ़्तुगू करते वो आइना जो करे हर्फ़-गीरी-ए-किरदार जो हाथ आए तो लोगों के रू-ब-रू करते कहीं सुराग़-ए-ख़ुलूस-ओ-वफ़ा अगर मिलता तो अपनी ज़ात को हम वक़्फ़-ए-जुस्तुजू करते हम आज अश्क-ब-दामाँ जो हैं तो रोना क्या तमाम-उम्र ही गुज़री है हा-ओ-हू करते मिसाल-ए-आइना रखते जो दिल में अक्स-ए-जमील कभी तबाह न शीशे की आबरू करते ख़राब होते ख़राबे में और क्या होता हुज़ूर-ए-साक़ी अगर हम सुबू सुबू करते हमें भी काश जो तौफ़ीक़-ए-एज़दी होती तो हम भी कौसर-ओ-तसनीम से वुज़ू करते यक़ीं जो होता कि होंगे हलाक सिद्क़-ओ-वफ़ा तो एहतिमाम से मरने की आरज़ू करते हमें भी रास जो आती शगुफ़्तगी दिल की तो 'लैस' हम भी कभी जुरअत-ए-नुमू करते