मौत भी मेरी दस्तरस में नहीं और जीना भी अपने बस में नहीं आग भड़के तो किस तरह भड़के इक शरर भी तो ख़ार-ओ-ख़स में नहीं क़त्ल-ओ-ग़ारत खुली फ़ज़ा का नसीब ऐसा ख़तरा कोई क़फ़स में नहीं क्या सुने कोई दास्तान-ए-वफ़ा फ़र्क़ अब इश्क़ और हवस में नहीं ज़ुल्म के सामने हो सीना-सिपर हौसला इतना हम-नफ़स में नहीं 'जोश' वो जो कहें करो तस्लीम फ़ाएदा कुछ भी पेश-ओ-पस में नहीं