मौत जब मेरे नज़दीक आने लगी ज़िंदगी फिर मुझे क्यों लुभाने लगी एक तू क्या गया है जहाँ से मिरे जो भी थी आरज़ू सब ठिकाने लगी ख़्वाब में भी बिछड़ने लगे मुझ से तुम नींद भी आ के मुझ को डराने लगी तू तो अपनी थी मेरी तुझे क्या हुआ ज़िंदगी तू भी अब आज़माने लगी धूप पर मैं कोई तब्सिरा क्या करूँ छाँव भी अब तो मुझ को जलाने लगी जब भी तन्हाइयाँ मुझ पे हावी हुई लफ़्ज़ काग़ज़ पे फिर से सजाने लगी ज़िंदगी भर कोई साथ देता नहीं मैं 'सिया' ख़ुद को यूँ वरग़लाने लगी