मौत का डर नाख़ुदा कुछ भी नहीं ज़िंदगी का मसअला कुछ भी नहीं आग पानी और हवा कुछ भी नहीं सिर्फ़ मिट्टी थी बना कुछ भी नहीं कुछ लहू का रंग और कुछ आब-ओ-गिल मुझ में तो ख़ुद-साख़्ता कुछ भी नहीं ज़िंदगी की इस हसीं पाज़ेब में सिर्फ़ घुँगरू के सिवा कुछ भी नहीं दीद की ख़्वाहिश की मूसा ने वहाँ लेकिन उन पर भी खुला कुछ भी नहीं हो न जब तक हिज्र की मुश्किल रदीफ़ वस्ल का तो क़ाफ़िया कुछ भी नहीं बे-यक़ीनी है यक़ीनी कैफ़ियत हाथ उठे हैं पर दुआ कुछ भी नहीं हाँ अगर मक़्सूद हो दीदार-ए-यार तब ख़ला और फ़ासला कुछ भी नहीं अब ज़मीं पर मैं अगर मौजूद हूँ इस में तो मेरी ख़ता कुछ भी नहीं जिस तरह 'रुख़्सार' गुज़री ज़िंदगी मौत का ये मरहला कुछ भी नहीं