ये बज़्म-ए-शब है यहाँ इल्म-ओ-आगही कम है कई चराग़ जले फिर भी रौशनी कम है इसी लिए तो मिरी उस से दोस्ती कम है वो ख़ुद-परस्त ज़ियादा है आदमी कम है यही बहुत है कि पानी को छू लिया हम ने बड़ा है बहर-ए-मोहब्बत शनावरी कम है हवा-ए-गर्म चली यूँ कि बुझ गए चेहरे गुलों में अब के बरस भी शगुफ़्तगी कम है कहाँ के इश्क़-ओ-मोहब्बत कहाँ के इल्म-ओ-हुनर ख़ुमार-ए-शौक़ ज़ियादा है आगही कम है ख़ता है अपनी कि माहौल है ज़माने का निगाह-ए-गर्म बहुत सुल्ह-ओ-आश्ती कम है फ़ज़ा बदलने से दिल तो बदल नहीं जाते वो इंक़लाब है क्या जिस की ज़िंदगी कम है ख़याल-ए-ताज़ा उमडते हैं बादलों की तरह मुझे ये ग़म कि मिरा ज़र्फ़-ए-शाइरी कम है मिरी दुआएँ सभी राएगाँ गईं 'नामी' न आसमान है रौशन न तीरगी कम है