मवाद कर के फ़राहम चमकती सड़कों से सजा रहा हूँ ग़ज़ल को नए ख़यालों से छुपी है उन में न जाने कहाँ की चीख़-पुकार बुलंद होते हैं नग़्मे जो रोज़ महलों से नज़र न आई कभी फिर वो गाँव की गोरी अगरचे मिल गए देहात आ के शहरों से गुज़ार देते हैं उम्रें वो घुप-अंधेरों में लटक रहे हैं जो बिजली के ऊँचे खंबों से समुंदर अब तू उन्हें और बे-क़रार न कर गुज़र के आई हैं लहरें हज़ार नहरों से तुलूअ होगा अभी कोई आफ़्ताब ज़रूर धुआँ उठा है सर-ए-शाम फिर चराग़ों से 'हज़ीं' ये शोला-ए-ताबाँ कभी नहीं बुझता मैं क्यूँ हयात को तश्बीह दूँ हबाबों से