मायूस लौट आई जहाँ तक नज़र गई साहिल की जुस्तुजू में क़यामत गुज़र गई बिजली गिरी चमन पे मगर आशियाँ जला आई थी किस की मौत क़ज़ा किस के सर गई बीमार-ए-ग़म के दो ही थे मुश्किल-कुशा मगर आए न तुम क़ज़ा भी कहीं जा के मर गई इक ये भी ज़िंदगी है कि रोते हैं रात-दिन इक वो भी ज़िंदगी थी कि हँसते गुज़र गई आए हैं जब चमन में वो हमराह ग़ैर के हर गुल के साथ ग़ैर पे अपनी नज़र गई गुल फ़स्ल-ए-गुल में यूँ तो 'रियाज़ी' खिले मगर पूछो न उस कली की जो खिल कर बिखर गई