मायूस मेरे ग़म से न हो चारागर कहीं

मायूस मेरे ग़म से न हो चारागर कहीं
घबरा के कह न जाए कि बे-मौत मर कहीं

दिल को भी अब जला न दे सोज़-ए-जिगर कहीं
बर्बाद हो न जाए मिरा ये भी घर कहीं

वो आइने में महव हैं मैं उन में महव हूँ
मेरी नज़र कहीं है तो उन की नज़र कहीं

ऐ पैकर-ए-जमील तुझे याद हो न हो
तुझ से कभी मिले तो थे हम बेशतर कहीं

क्या मरहले हैं राह-ए-मोहब्बत के मरहले
दिल पर कहीं बनी है मिरी जान पर कहीं

ठहरा हो एक पल भी जहाँ कारवान-ए-दिल
आया न राह-ए-शौक़ में ऐसा नगर कहीं

मंज़िल की जुस्तुजू में ये आलम है अल-अमाँ
रोके हुए हैं राह कहीं राहबर कहीं

हम ने बड़े ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत से बात की
जब भी हमें मिला है कोई मो'तबर कहीं

शौक़-ए-सफ़र तो है दिल-ए-पुर-इश्तियाक़ को
हो जाए मुज़्महिल न ये वक़्त-ए-सफ़र कहीं

रोज़-ए-अज़ल वो दर्द-ए-मुसलसल अता हुआ
दिल को सुकून मिल न सका उम्र भर कहीं

उस ख़ानुमाँ-ख़राब का आलम न पूछिए
जिस बे-नवा की शाम कहीं हो सहर कहीं

हर ज़र्रा पुर-ज़िया था तिरी जल्वा-गाह का
मेरी ही थी ख़ता कि झुकाया न सर कहीं

ऐ हम-सफ़र ये अज़्म-ए-सफ़र तो बजा सही
दर-पेश हो न ज़हमत-ए-तूल-ए-सफ़र कहीं

रहने दे अपने हाल में मस्त ऐ सबा न छेड़
मेरा अभी ख़याल कहीं है नज़र कहीं

बहर-ए-ख़ुदा न छेड़िए यूसुफ़ का वाक़िआ'
बे-आबरू हुआ न कोई इस क़दर कहीं

तस्ख़ीर-ए-काएनात के दा'वे बजा सही
हम-रुत्बा-ए-ख़ुदा भी हुआ है बशर कहीं

हो तेरी बात बात में इक बात ऐ 'कँवल'
बे-लुत्फ़ बे-मज़ा न हो फ़िक्र-ओ-नज़र कहीं


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