क्या कहूँ मुझ पे जो ऐ दुश्मन-ए-जाँ गुज़री है तिरी हर बात तबीअ'त पे गिराँ गुज़री है कुछ न समझेगा तू बेताबी-ए-दिल का आलम ये मुसीबत की घड़ी तुझ पे कहाँ गुज़री है नौनिहालान-ए-चमन भी ख़स-ओ-ख़ाशाक हुए ख़ाक उड़ाती हुई यूँ बाद-ए-ख़िज़ाँ गुज़री है ज़िंदगी नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-नवा थी पहले आज तक ख़ैर से ऐ दर्द-ए-निहाँ गुज़री है जादा-ए-शौक़ में ये भी मुझे मा'लूम नहीं दिन कहाँ बीत गया रात कहाँ गुज़री है ज़ीस्त वो क्या है जो मौहूम सी उम्मीद लिए मौत की राह से बेनाम-ओ-निशाँ गुज़री है देखिए रंग जमाती है बहार अब क्यों कर लूट कर हुस्न-ए-गुलिस्ताँ को ख़िज़ाँ गुज़री है जुरअत-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना मुझे क्यों कर हो 'कँवल' ख़ातिर-ए-हुस्न पे हर बात गिराँ गुज़री है