मज़े क्या क्या हैं गुमराही में ये पूछो मिरे दिल से जुनून-ए-शौक़ में है बे-नियाज़ी मुझ को मंज़िल से न घबरा ऐ मुसाफ़िर जादा-ए-तारीक-ए-मंज़िल से मिलेगी रौशनी आख़िर चराग़-ए-शौक़-ए-कामिल से इधर दरया-ए-तूफ़ाँ-ख़ेज़ में पैहम हूँ मैं ग़लताँ उधर बैठे तमाशा देखते हैं लोग साहिल से निगाह-ए-शौक़ इतना गुदगुदा दे उन के जल्वे को कि वो ख़ुद बा-ख़बर हो जाएँ राह-ओ-रस्म-ए-मंज़िल से शफ़क़ के सुर्ख़ पर्दों से है माह-ए-नौ ज़िया गुस्तर कि लैला झाँकती है पर्दा-ए-रंगीन-ए-महमिल से अगर उन की नज़र रूठी मनाना कब है सहल उस को गिरह पड़ती है आसानी से पर खुलती है मुश्किल से इलाही ख़ैर कश्ती खेलती है मेरी तूफ़ाँ में कभी मौजों के दामन से कभी दामान-ए-साहिल से तलातुम-ख़ेज़ मौजों ने ये कैसा कर दिया जादू सफ़ीना भागता है ख़ुद मिरा दामान-ए-साहिल से मिरी टूटी हुई कश्ती की बर्बादी मुक़द्दर थी बची गिर्दाब से टकरा गई दामान-ए-साहिल से अभी तो आ के बैठे हो ज़रा ठहरो ज़रा बोलो निगाहों से निगाहें मिल चुकीं दिल भी मिले दिल से 'वली' बहर-ए-ख़ुदा ज़हमत न दे अब मुझ को शिरकत की कि दिल ही सर्द है शेर-ओ-सुख़न की सर्द महफ़िल से