लब हैं ख़मोश आँख तबस्सुम-फ़रोश है उफ़ ये अदा-ए-नाज़ क़यामत-ब-दोश है हर चश्म बज़्म-ए-नाज़ में हैरत-फ़रोश है वारफ़्तगी में किस को नज़ारे का होश है ऐ ख़िज़्र-ए-शौक़ आ मिरे बाज़ू को थाम ले मंज़िल है दूर राह में ज़ुल्मत का जोश है क्यों इल्तिमास-ए-शौक़ पशेमाँ न हो मिरा हुस्न-ए-फ़रेब-कार अभी तक ख़मोश है रंगीं नक़ाब रुख़ से उठा ऐ जमाल-ए-यार फिर मेरी आँख ज़ौक़-ए-तमाशा-ब-दोश है आशुफ़्ता-हाल हैं तिरे दीवानगान-ए-शौक़ दामन की कुछ ख़बर न गरेबाँ का होश है है चश्म-ए-शौक़ नर्गिस-ए-पुर-फ़न से हम-सुख़न गो मैं इधर ख़मोश उधर वो ख़मोश है क्या पूछते हो अब दिल-ए-हसरत-ज़दा का हाल वो सोज़-ओ-साज़ है न वो जोश-ओ-ख़रोश है ऐसे में हम से क्यों न हो सरज़द गुनाह-ए-शौक़ बेबाक फिर वो नर्गिस-ए-सहबा-फ़रोश है याद आए इब्तिदा-ए-मोहब्बत के फिर मज़े फिर इज़्तिराब-ए-शौक़ का सीने में जोश है क्यों नुक्ता-आफ़रीं न तिरी तब्अ' हो 'वली' 'ग़ालिब' की तरह ये भी नवा-ए-सरोश है