रुख़्सत-ए-शाम है और वा'दे का साया भी नहीं अब तकल्लुफ़ न करूँ जा के तक़ाज़ा हो जाऊँ कब से हूँ माही बे आब ज़माने की तरह कोई नेकी हो तिरे पास तो दरिया हो जाऊँ कितने पेचीदा मसाइल की थकन है मुझ में इक ज़रा सोच लूँ तुझ को तर-ओ-ताज़ा हो जाऊँ कितने पहलू हैं कई रंग छुपे हैं मुझ में अभी ऐसा हूँ जो तू चाहे तो वैसा हो जाऊँ अपने सीने में हैं ठहरी हुई साँसें कब से ज़लज़ला बन के तो आ मैं तह-ओ-बाला हो जाऊँ वो रिफ़ाक़त पे रज़ा-मंद नहीं है तो न हो क्या मैं उस शख़्स के होते हुए तन्हा हो जाऊँ बे-यक़ीनी है कुछ इमरोज़ में इतनी 'मज़हर' जी में आता है कि अंदेशा-ए-फ़र्दा हो जाऊँ