हमें आमद-ए-'मीर' कल भा गई तरह इस में मजनूँ की सब पा गई कहाँ का ग़ुबार-ए-आह दिल में ये था मिरी ख़ाक बदली सी सब छा गई क्या पास बुलबुल-ए-ख़िज़ाँ ने न कुछ गुल-ओ-बर्ग बे-दर्द फैला गई हुई सामने यूँ तो एक एक के हमें से वो कुछ आँख शर्मा गई जिगर मुँह तक आते नहीं बोलते ग़रज़ हम भी करते हैं क्या क्या गई न हम-रह कोई ना कसी से गया मिरी लाश ता-गोर तन्हा गई घटा शम्अ' साँ क्यूँ न जाऊँ चला तब-ए-ग़म जिगर को मिरे खा गई कोई रहने वाली है जान अज़ीज़ गई गर न इमरोज़ फ़र्दा गई किए दस्त-ओ-पा गुम जो 'मीर' आ गया वफ़ा-पेशा मज्लिस उसे पा गई