'मीर' दरिया है सुने शेर ज़बानी उस की अल्लाह अल्लाह रे तबीअत की रवानी उस की ख़ातिर-ए-बादिया से दैर में जावेगी कहीं ख़ाक मानिंद बगूले के उड़ानी उस की एक है अहद में अपने वो परागंदा-मिज़ाज अपनी आँखों में न आया कोई सानी उस की मेंह तो बौछार का देखा है बरसते तुम ने इसी अंदाज़ से थी अश्क-फ़िशानी उस की बात की तर्ज़ को देखो तो कोई जादू था पर मिली ख़ाक में क्या सेहर-बयानी उस की कर के ता'वीज़ रखें उस को बहुत भाती है वो नज़र पाँव पे वो बात दिवानी उस की उस का वो इज्ज़ तुम्हारा ये ग़ुरूर-ए-ख़ूबी मिन्नतें उन ने बहुत कीं प न मानी उस की कुछ लिखा है तुझे हर बर्ग पे ऐ रश्क-ए-बहार रुक़आ वारें हैं ये औराक़-ए-ख़िज़ानी उस की सरगुज़िश्त अपनी किस अंदोह से शब कहता था सो गए तुम न सुनी आह कहानी उस की मरसिए दिल के कई कह के दिए लोगों को शहर-ए-दिल्ली में है सब पास निशानी उस की मियान से निकली ही पड़ती थी तुम्हारी तलवार क्या एवज़ चाह का था ख़स्मी-ए-जानी उस की आबले की सी तरह ठेस लगी फूट बहे दर्दमंदी में गई सारी जवानी उस की अब गए उस के जुज़ अफ़्सोस नहीं कुछ हासिल हैफ़ सद हैफ़ कि कुछ क़द्र न जानी उस की