तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं मर जाऊँ प गुलशन की तरफ़ रू न करूँ मैं गर ज'अद को सुम्बुल की सबा बेचने लावे ख़ातिर से तिरी क़ीमत-ए-यक-मू न करूँ मैं पल्ले में तिरे हुस्न के गो हो वो गिराँ-तर यूसुफ़ को तिरा संग-ए-तराज़ू न करूँ मैं यूँ दिल को गिरफ़्तार रखूँ सैद-ए-अलम में पर और का सैद-ए-ख़म-ए-गेसू न करूँ मैं गर हूर-ओ-परी दिल को लुभावे मिरे आ कर वल्लाह कि उस पर कभी जादू न करूँ मैं गर मर्सिया-ख़्वानी पे दिल आवे कभी मेरा तू होवे तो दाऊद को बाज़ू न करूँ मैं हूँ बस-कि हवा-दार तिरी आतिश-ए-ग़म का फुंक जाए जो सीना तो कभू हू न करूँ मैं यूँ देखूँ तो देखूँ किसी ख़ुश-वज़्अ को लेकिन ख़्वाहिश की नज़र बर-रुख़-ए-नेकू न करूँ मैं बुलबुल की तरह गुल पे न हूँ ज़मज़मा-परवाज़ कुमरी की तरह सर्व पे कू कू न करूँ मैं जब रात हो ज़ानू पे रखो अपने सर अपना पर तकिया-ए-सर ग़ैर का ज़ानू न करूँ मैं मेहराब के काबे का नमाज़ी हूँ तो वाँ भी जुज़ सज्दा-ए-ताक़-ए-ख़म-ए-अबरू न करूँ मैं जब तक न खुलें मुझ से तिरे हुस्न के उक़्दे हरगिज़ हवस-ए-नाफ़ा-ए-आहू न करूँ मैं हम-ख़्वाबा अगर होवे मिरी हूर-ए-बहिश्ती ईधर से उधर को कभी पहलू न करूँ मैं कोई और तो कब मुझ को लुभा सकता है लेकिन डरता हूँ तसव्वुर से तिरे ख़ू न करूँ मैं ऐ 'मुसहफ़ी' है अहद कि जब तक न वो गुल हो गुल-गश्त-ए-गुल ओ सैर-ए-लब-ए-जू न करूँ मैं