ये 'मीर'-ए-सितम-कुश्ता किसू वक़्त जवाँ था अंदाज़-ए-सुख़न का सबब शोर ओ फ़ुग़ाँ था जादू की पुड़ी पर्चा-ए-अबयात था उस का मुँह तकिए ग़ज़ल पढ़ते अजब सेहर-बयाँ था जिस राह से वो दिल-ज़दा दिल्ली में निकलता साथ उस के क़यामत का सा हंगामा रवाँ था अफ़्सुर्दा न था ऐसा कि जूँ आब-ज़दा ख़ाक आँधी थी बला था कोई आशोब-ए-जहाँ था किस मर्तबा थी हसरत-ए-दीदार मिरे साथ जो फूल मिरी ख़ाक से निकला निगराँ था मजनूँ को अबस दावा-ए-वहशत है मुझी से जिस दिन कि जुनूँ मुझ को हुआ था वो कहाँ था ग़ाफ़िल थे हम अहवाल-ए-दिल-ए-ख़स्ता से अपने वो गंज उसी कुंज-ए-ख़राबी में निहाँ था किस ज़ोर से फ़रहाद ने ख़ारा-शिकनी की हर-चंद कि वो बेकस ओ बे-ताब-ओ-तवाँ था गो 'मीर' जहाँ में किन्हों ने तुझ को न जाना मौजूद न था तू तो कहाँ नाम-ओ-निशाँ था