ये चश्म आईना-दार-ए-रू थी कसू की नज़र उस तरफ़ भी कभू थी कसू की सहर पा-ए-गुल बे-ख़ुदी हम को आई कि उस सुस्त पैमाँ में बू थी कसू की ये सर-गश्ता जब तक रहा इस चमन में ब-रंग-ए-सबा जुस्तुजू थी कसू की न ठहरी टुक इक जान बर-लब रसीदा हमें मुद्दआ' गुफ़्तुगू थी कसू की जलाया शब इक शो'ला-ए-दिल ने हम को कि उस तुंद सरकश में ख़ू थी कसू की न थे तुझ से नाज़ुक मयानान-ए-गुलशन बहुत तो कमर जैसे मू थी कसू की दम-ए-मर्ग दुश्वार दी जान इन ने मगर 'मीर' को आरज़ू थी कसू की