जो इख़्तिलाफ़ नहीं है तो ए'तिराफ़ तो हो है इख़्तिलाफ़ तो कुछ वज्ह-ए-इख़्तिलाफ़ तो हो दिलों में क्या है कुछ इस का अता-पता तो चले कि बात जैसी हो जो भी हो साफ़ साफ़ तो हो कुछ इस से रब्त-ओ-तअ'ल्लुक़ का सिलसिला तो लगे नहीं है वो जो मुआफ़िक़ न हो ख़िलाफ़ तो हो नहीं बुराई मिटाने की गर हमें तौफ़ीक़ कम-अज़-कम उस से तनफ़्फ़ुर तो इंहिराफ़ तो हो नहीं सआ'दत-ए-सज्दा अगर मुक़द्दर में ख़ुलूस से दर-ए-मा'बूद का तवाफ़ तो हो वो अहल-ए-नक़द-ओ-बसीरत हैं ख़ैर होंगे भी दुरुस्त पहले मगर उन का शीन-क़ाफ़ तो हो न हों जो शे'र हक़ाएक़ के तर्जुमाँ 'राही' हक़ीक़तों का मगर उन से इंकिशाफ़ तो हो