मेहरबानी है ये चश्म-ए-यार की मौत बर-हक़ है दिल-ए-बीमार की वज्ह भी ज़ाहिर करें इंकार की कुछ तो गुंजाइश हो इस्तिफ़्सार की पल में तारीकी है पल में रौशनी शक्ल है ये मुख़्तलिफ़ अदवार की आदमी हो ज़िंदगी में सुर्ख़-रू लाज रह जाए अगर पिंदार की पैकर-ए-हुस्न-ए-अदा है जिस की ज़ात दिल में चाहत है उसी दिलदार की ख़ाना-ए-दिल से कहाँ जाएँगे आप हद मुक़र्रर है दर-ओ-दीवार की हो चुकी 'हसरत' बहुत दिन शायरी फ़िक्र करनी है तुझे घर-बार की