मेज़ों पे सजा के अयाग़ धरो अब दामन दामन दाग़ धरो हम-सायों के घर हैं छप्पर के ला कर न हवा में चराग़ धरो आकाश को इक दिन छू लेगा उस सर में मेरा दिमाग़ धरो बेगानों की है ये बस्ती मंज़िल के यहाँ न सुराग़ धरो अच्छा नहीं दिल का कोरा-पन इस बंजर में एक बाग़ धरो