में सोचता हूँ जिसे आश्ना भी होता है मगर ख़याल से वो मावरा भी होता है सिवाए शाइ'री ज़िंदाँ में कुछ किया ही नहीं वगर्ना बंद-ए-क़फ़स खोलना भी होता है ज़ियादा-तर मैं अनासिर से दूर देखूँ उसे वो ख़ाक ओ आतिश ओ आब ओ हवा भी होता है मैं टूट जाता हूँ और दूर जा बिखरता हूँ अगर जुदाई का सदमा ज़रा भी होता है हर एक रास्ते पर हम तो जा के देखें मगर जिधर न जाना हो वो रास्ता भी होता है उसी के दर के फ़क़त हो के रह गए हैं हम सुना है जब से कि दरवाज़ा वा भी होता है 'ज़फ़र' वहाँ कि जहाँ हो कोई भी हद क़ाएम फ़क़त बशर नहीं होता ख़ुदा भी होता है