है बे-असर ऐसी ही जो अपनी कशिश-ए-दिल जी ले ही के छोड़ेगी ये इक दिन ख़लिश-ए-दिल था मू मुझे आमद में कोई उस की कि नागाह ले जाए न घर से कहीं बाहर तपिश-ए-दिल ज़हराब ओ हलाहिल से जो कुछ काम न निकला दे कर के मैं की ख़ून-ए-जिगर परवरिश-ए-दिल किस तरह कोई गुज़रे तिरी रह से कि प्यारे हर गाम पे इस कूचे में है चपक़लिश-ए-दिल क्या नक़्श कि ख़ातिर से हुए मुझ को मगर एक हर नक़्श तिरा आठ पहर मुंतक़िश-ए-दिल हाथों से दिल ओ दीदा के आया हूँ निपट तंग आँखों को रोऊँ या मैं करूँ सरज़निश-ए-दिल दीजो न इसे उस बुत-ए-बेबाक को 'क़ाएम' ज़िन्हार कि नाज़ुक है निहायत तपिश-ए-दिल