मेरा दस्त-ए-आरज़ू फैला हुआ और उस ने हाथ है खींचा हुआ दश्त में मुझ को सदा देता है कौन कौन आया है यहाँ भटका हुआ इतना दौड़ा हूँ सराबों की तरफ़ बहते दरियाओं पे भी धोका हुआ क्या अमाँ माँगूँ मैं उस से जान की जांकनी में है जो ख़ुद उलझा हुआ जिस तरफ़ देखो जज़ीरे बन गए क्या समुंदर भी है अब सिमटा हुआ क़ैस की मीरास मेरे पास है नाक़ा-ए-लैला को ढूँडो क्या हुआ कुछ न था बस जिद्दत-ए-अल्फ़ाज़ थी उस का हर मज़मून बे-मा'नी हुआ मैं ने सारी रात की जिस की तलाश सुब्ह वो सूरज मिला डूबा हुआ अहद था मेरा तो पत्थर की लकीर कच्चा धागा उस का हर वा'दा हुआ