मेरा मक़्सूद-ए-नज़र लौह-ए-मुक़द्दर में नहीं मैं वो मोती ढूँढता हूँ जो समुंदर में नहीं बात करने की भी अब फ़ुर्सत नहीं शायद उसे मैं ने जब आवाज़ दी कहला दिया घर में नहीं किस तरह से धोइए चेहरे से गर्द-ए-माह-ओ-साल इतने आँसू भी तो अपने दीदा-ए-तर में नहीं जगमगा सकती हो जिस से ख़ामुशी की रेग-ए-दिल इतनी आब-ओ-ताब आवाज़ों के ख़ंजर में नहीं वाहिमों के भूत ग़म के साए सन्नाटे के नाग कौन सा आसेब ऐ 'ताहिर' मिरे घर में नहीं