सूरज की तरह अपने ही महवर में क़ैद हूँ सदियों से रौशनी के समुंदर में क़ैद हूँ सर से गुज़रती जाती हैं लम्हों की आँधियाँ मैं हूँ कि माह-ओ-साल के चक्कर में क़ैद हूँ क्या क्या न सोचता हूँ मैं फ़र्दा के बाब में हालाँकि जानता हूँ मुक़द्दर में क़ैद हूँ चाहूँ तो काएनात के ख़िरमन को फूँक दूँ तुम क्या समझ रहे हो कि पत्थर में क़ैद हूँ शायद मिरा वजूद था इक हिस्सा-ए-ज़मीं मैं ख़ाक हो के भी इसी चक्कर में क़ैद हूँ 'ताहिर' मैं इक जज़ीरे की मानिंद आज भी तिश्ना-दहन हूँ गो कि समुंदर में क़ैद हूँ