मेरे अफ़्कार ने जिस शय से जिला पाई है इश्क़ की ज़िंदा-दिली हुस्न की रा'नाई है शाख़-ए-गुल में जो नज़ाकत जो लहक आई है तेरी बाहोँ की लचक है तेरी अंगड़ाई है फिर उभरने लगे न ख़स्ता-माज़ी के नुक़ूश लौह-ए-दिल पर कोई तस्वीर उभर आई है ग़म-ओ-अंदोह के इस दौर में क्या ऐश-ओ-निशात शादयाने हैं ख़ुशी के न वो शहनाई है ज़िंदगी है कि बुलाती है तक़ाज़ों की तरफ़ दिल गिरफ़्तार-ए-ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपाई है रहिए ख़ामोश तो हालात बिगड़ जाते हैं और कुछ कहिए तो अंदेशा-ए-रुस्वाई है दिल वो क्या है कि न हो जिस में मोहब्बत का जुनून सर वो क्या है कि जो बे-वज़्अ जबीं-साई है मैं कि दरपेश है मुझ को सफ़र-ए-दूर-ओ-दराज़ और इक वो हैं कि उन को ग़म-ए-तन्हाई है कोई मरहम न मुदावा कोई फाहा न दवा ज़ीस्त ओढ़े हुए ज़ख़्मों की रिदा आई है ज़र्फ़-ओ-हिम्मत से सिवा दी नहीं जाती तकलीफ़ इतना ग़म देते हैं जितनी कि शकेबाई है 'ताज' ये ज़ोर-ए-बयाँ जो भी सुख़न में कुछ है असर-ए-तर्बियत-ए-शेवन-ए-मीनाई है