सीम-ओ-ज़र की कोई तनवीर नहीं चाहती मैं किसी शहज़ादी सी तक़दीर नहीं चाहती मैं मकतब-ए-इश्क़ से वाबस्ता हूँ काफ़ी है मुझे दाद-ए-'ग़ालिब' सनद-ए-'मीर' नहीं चाहती मैं फ़ैज़याबी तिरी सोहबत ही से मिलती है मुझे कब तिरे इश्क़ की तासीर नहीं चाहती मैं क़ैद अब वस्ल के ज़िंदाँ में तू कर ले मुझ को ये तिरे हिज्र की ज़ंजीर नहीं चाहती मैं मुझ को इतनी भी न सिखला तू निशाना बाज़ी तुझ पे चल जाए मिरा तीर नहीं चाहती मैं अब तो आता नहीं 'अम्बर' वो कभी सपने में अब किसी ख़्वाब की ता'बीर नहीं चाहती मैं