मिरे अपनों को बस ये खल रहा था मिरे पीछे ज़माना चल रहा था लहू की बू महल से आ रही है यहाँ शायद कभी मक़्तल रहा था परिंदो हक़ से बैठो बिल्डिंगों पर कि पहले इस जगह जंगल रहा था लिखा था बेवफ़ा इक बार मुझ को सो उस का हाथ बरसों शल रहा था तिरी दस्तार उछली अब मोअल्लिम कभी जूता तिरा अफ़ज़ल रहा था धुएँ की लहर थी कुछ ही छतों पर मगर अन्दर से हर घर जल रहा था 'नबील' उस से चलो दानाई सीखें वही जो मुद्दतों पागल रहा था