मिरे ग़मों का मिरे मसअलों का हल भी था By Ghazal << इधर कुछ और कहती है उधर कु... जो कह न पाऊँ वो काग़ज़ पे... >> मिरे ग़मों का मिरे मसअलों का हल भी था रफ़ीक़ ऐसा के हर दर्द का बदल भी था ग़म-ए-हयात के ज़ख़्मों का मेरे था मरहम वो आज भी है मिरे दिल में और कल भी था कुछ ऐसा ज़ेहन में था 'औज' वो मिरे क़ाबिज़ वो मेरी नज़्म था वो ही मिरी ग़ज़ल भी था Share on: