जो कह न पाऊँ वो काग़ज़ पे ढाल देता हूँ ग़ुबार दिल के मैं यूँ भी निकाल देता हूँ ग़म-ए-हयात से जब बे-क़रार होता हूँ तसल्लियाँ मिरे दिल को कमाल देता हूँ कमाल-ए-ज़ब्त से अपने कभी इरादों से मुसीबतों को मैं हैरत में डाल देता हूँ ख़याल-ओ-ख़्वाब का मुमकिन नहीं जहाँ जाना मैं अपने आप को ऐसा सवाल देता हूँ अक़ीदतों से नहीं 'औज' ख़ुद अमल कर के मैं अपनी क़ब्र के गोशे उजाल देता हूँ