मेरे घर हों कि कहीं दूर दरीचों में चराग़ शब-ए-हिज्राँ का है दस्तूर दरीचों में चराग़ मुंतज़िर आँख तो थक-हार के सो जाती है जागते रहते हैं मजबूर दरीचों में चराग़ अब तो आता ही नहीं मेरी गली में कोई किस की ख़िदमत पे हैं मामूर दरीचों में चराग़ मैं हूँ आवारा-ए-शब और ये ज़ाद-ए-शब हैं दीदा-ए-तर दिल-ए-रंजूर दरीचों में चराग़ मेरा और उस का त'अल्लुक़ है फ़क़त इतना सा जैसे रक्खे हों कहीं दूर दरीचों में चराग़ उस के लौट आने से बीनाई भी लौट आई है जगमगा उट्ठे हैं बे-नूर दरीचों में चराग़ अब तो आज़ाद हूँ दीवार-ओ-दर-ओ-बाम से मैं अब हवा को नहीं मंज़ूर दरीचों में चराग़ शब-ए-उम्मीद भी ढलने को है आ जा 'सागर' बुझने वाले हैं ये महजूर दरीचों में चराग़