मुस्कुराती हुई आँखें थीं कि झिलमिल से चराग़ उस के जाते ही लगा चल दिए महफ़िल से चराग़ तीरगी को ही मिरा राह-नुमा रहने दे मुझ को गुमराह न कर दें कहीं मंज़िल से चराग़ शब-ए-‘आशूर बता तुझ को भी मा'लूम नहीं बा'इस-ए-नूर-ए-दो-'आलम हैं ये बिस्मिल से चराग़ किस ने खोला है मिरा राज़ कि मैं हूँ सूरज हट गए शर्म से ख़ुद मेरे मुक़ाबिल से चराग़ तुझ से पहले ही हवा ने मिरा घर देख लिया अब दरीचों में जलेंगे ज़रा मुश्किल से चराग़ मैं तो ग़र्क़ाब-ए-तलातुम हूँ बड़ी मुद्दत से किस को देते हैं सदा आज भी साहिल से चराग़ तू कि रुख़्सार पे ख़ुर्शीद लिए फिरता है रौशनी माँगते रहते हैं तिरे तिल से चराग़ मैं तो 'सागर' की हूँ इक मौज तू पहचान मुझे जब भी चाहूँगा मैं ले जाऊँगा साहिल से चराग़