मेरे हरीफ़ ही को सही चाहता तो है अब उस की ज़िंदगी में कोई तीसरा तो है माना गुज़ारता है वो मसरूफ़ ज़िंदगी लेकिन कभी कभी ही मुझे सोचता तो है छलकी हुई हैं साअत-ए-जाँ की गुलाबियाँ महफ़िल में आँसुओं की अभी रत-जगा तो है उस को उदास देख के कितनी ख़ुशी हुई मेरी तमाम उम्र का ग़म-आश्ना तो है नोक-ए-मिज़ा पे उस की सितारा कभी कभी मेरे धड़कते दिल की तरह काँपता तो है सच है कि तितलियों से उसे है मुनासिबत कम कम ही बर्ग-ए-दिल पे मगर बैठता तो है अंगड़ाइयों से फूल की आती तो है सदा ख़ुश्बू का शोख़-ओ-शंग बदन टूटता तो है