मिरे ही जैसा मिरे दर पे इक सवाली है मैं क्या करूँ कि मिरा हाथ ख़ुद ही ख़ाली है अभी भी दूर है सब्ज़े से किश्त-ज़ार-ए-उमीद कि अब के साल भी पहली सी ख़ुश्क-साली है तिरे क़रीब न आते कि तेरी क़ुर्बत में किसे ख़बर थी कि इस तरह पाएमाली है तलाश हम को भी है अपने आसमानों की ख़ला में हम ने भी अपनी ज़मीं उछाली है हर एक लम्हा नए ज़लज़लों से लड़ते हैं किसी ने मम्लिकत-ए-दिल न यूँ सँभाली है जला चुका हूँ मैं सारे अनासिर-ए-एहसास ज़रा सी जान मगर मैं ने क्यों बचा ली है वो क़त्ल हो गया आख़िर मनाओ जश्न 'शुऐब' तुम्हें था वहम कि फिर अब के वार ख़ाली है