मेरे लब पे हँसी अगर आई तो फ़क़त अपने हाल पर आई दास्तान-ए-हयात लिक्खूंगा ज़ब्त-ए-तहरीर में अगर आई बे-ख़ुदी ने ये मो'जिज़ा भी किया छोड़ने मुझ को मेरे घर आई क़ाबिल-ए-दीद थे मक़ाम सभी जिन से ये ज़िंदगी गुज़र आई मेरी ख़ातिर ये रहमत-ए-यज़्दाँ उस बुलंदी से क्यों उतर आई हम न सज्दे से सर उठाएँगे बात बनती अगर नज़र आई हेच समझा था हम ने दुनिया को ये भी तोहमत हमारे सर आई मौत ही के लिए सही 'राहत' इक दुआ तो ज़बान पर आई