मेरे तो रोज़-ओ-शब से ख़सारा नहीं गया शायद कि तुम को दिल से पुकारा नहीं गया बे-रब्त हो गई है तिरे बाद इस तरह फिर ज़िंदगी को हम से गुज़ारा नहीं गया महफ़ूज़ मेरी आँखें में रुख़्सत का वक़्त है इन दोनों खिड़कियों से नज़ारा नहीं गया चेहरे पे है अयाँ वही तहरीर-ए-दिल-शिकस्त मुझ से तो और रूप भी धारा नहीं गया कश्ती वफ़ा की डूबी तो बहर-ए-यक़ीन में मौजें गई हैं साथ किनारा नहीं गया टूटा फ़लक से जो भी ज़मीं-ज़ाद बन गया वापस पलट के फिर वो सितारा नहीं गया ऐ 'हादिया' सँवार दी दुनिया की रहगुज़ार लेकिन नसीब अपना सँवारा नहीं गया