तू राज़ समझा नहीं दर्द की पहेली का वो दास्ताँ थी मिरी नाम था सहेली का दुखी हुई मिरी आँखें थी तेरे अश्कों से कि रंग हल्का पड़ा था किसी चमेली का हँसी मज़ाक़ में मशहूर था ये शहर मगर किसी ने दुख नहीं बाँटा था उस अकेली का न जाने कैसी मोहब्बत में क़ैद हो गई हूँ मैं रोज़ देखती हूँ दायरा हथेली का वो दिल की सेज पे ऐ 'हादिया' बिठाएगा सजा है ख़्वाब में कमरा कोई हवेली का