मेरी कश्ती को किनारे पे लगाते भी नहीं अपना कहते है मगर रिश्ता निभाते भी नहीं इक ज़माने से मुझे उन से शिकायत है यही याद करते भी नहीं मुझ को भुलाते भी नहीं ज़ख़्म फिर तुम ने किए ताज़ा वगर्ना हम तो दर्द ता-उम्र तुम्हें अपना बताते भी नहीं जानते हैं कि तुम्हें फ़र्क़ न पड़ना कोई अपनी पलकों पे सो हम अश्क सजाते भी नहीं कुछ न बदला है न उम्मीद बदलने की कुछ जानते हैं तभी तो शोर मचाते भी नहीं इस ज़माने की यही एक हक़ीक़त है 'ज्योति' लोग रस्मन ही सही दिल से निभाते भी नहीं