मेरी कोशिश है आइना भी रहूँ और टकरा के टूटता भी रहूँ इक क़फ़स में ख़याल-ओ-बू की तरह क़ैद भी मैं रहूँ रिहा भी रहूँ ख़ुद से कह लूँ मैं दास्ताँ अपनी दर्द में कुछ तो ख़ुश-नवा भी रहूँ हो न जाऊँ मैं बे-हिसी का शिकार तुझ से मिलता रहूँ जुदा भी रहूँ रोज़ की कश्मकश के शो'लों में आग भी मैं रहूँ हवा भी रहूँ शब को 'बेबाक' कह रहा हूँ ग़ज़ल ताकि मैं सुब्ह-आश्ना भी रहूँ