मिरी कोशिश है ग़म अपना ज़माने से छुपा लूँ मैं कहीं ख़ल्वत में तन्हा बैठ कर आँसू बहा लूँ मैं किसी जंगल में जाकर सोचता हूँ घर बना लूँ मैं ये दुनिया छोड़ दूँ और इक नई दुनिया बसा लूँ मैं बनी-आदम से लगते हैं भले मुझ को पशू पंछी बची है उम्र जो बेहतर है साथ उन के बिता लूँ मैं नहीं मंज़ूर मुहताजी मुझे हरगिज़ ज़माने की चले गर बस मिरा मय्यत भी अपनी ख़ुद उठा लूँ मैं जो सीने में मचलते हैं मगर लब तक नहीं आए क़ज़ा कुछ रोज़ ठहरे तो वो नग़्मे भी सुना लूँ मैं करूँ राज़ी दिल-ए-मुज़्तर को किस तरकीब से आख़िर कोई बच्चा नहीं जिस को खिलौनों से मना लूँ मैं ये हद है बे-हयाई की कि गुलशन जल रहा है और मुझे ये फ़िक्र है बस आशियाँ अपना बचा लूँ मैं ये माया-जाल जो मैं ने बुना है इर्द-गिर्द अपने 'सदा' इस जाल से ख़ुद को उफ़ अब कैसे निकालूँ मैं