मेरी नज़र में उस की तब-ओ-ताब और है कहते हैं जिस को गौहर-ए-नायाब और है सरशार जिस से रूह हो वो गीत है जुदा जो तार दिल का छेड़े वो मिज़राब और है मक़्सूद जो मुझे है ये ता'बीर वो नहीं जो देखती है आँख मिरी ख़्वाब और है खुलते हैं जिस से लोगों पे असरार-ए-बे-ख़ुदी मेरी किताब-ए-ज़ीस्त का वो बाब और है है ज़ेहन ज़िंदगी के मसाइल से मुंतशिर और दिल किसी के इश्क़ में बेताब और है अपनी जगह पे दोनों ही ख़ुश-रंग हैं मगर ताऊस और चीज़ है सुरख़ाब और है ये वार भी हदफ़ से कहीं दूर जा गिरा तरकश में तीर क्या कोई 'नायाब' और है