मिरी रूह तन से जुदा हो गई किसी ने न जाना कि क्या हो गई बहुत दुख़्तर-ए-रज़ थी रंगीं-मिज़ाज नज़र मिलते ही आश्ना हो गई मरीज़-ए-मोहब्बत तिरा मर गया ख़ुदा की तरफ़ से दवा हो गई बुतों को मोहब्बत न होती मिरी ख़ुदा का करम हो गया हो गई इशारा किया बैठने का मुझे 'इनायत की आज इंतिहा हो गई ये थी क़ीमत-ए-रिज़्क़ टूटे जो दाँत ग़रज़ कौड़ी-कौड़ी अदा हो गई दवा क्या कि वक़्त-ए-दु’आ भी नहीं तिरी हालत 'अकबर' ये क्या हो गई