मिरी शिकस्त का आग़ाज़ कामरानियों से मैं जंग जीता मुक़द्दर की मेहरबानियों से मैं देर तक यहीं साहिल पे बैठा रहता हूँ मिरा मुकालिमा होता है नीले पानियों से कभी कभी ये खंडर ख़ुद मुझे बताते हैं कि मेरा कोई त'अल्लुक़ है इन कहानियों से हर एक दिन नया महशर उठा के लाता हूँ मैं तंग आ के क़यामत की इन निशानियों से वही कि जिस की विरासत का दा'वेदार था मैं झगड़ रहा हूँ उसी सल्तनत के बानियों से नज़र-नवाज़ बहारों का गीत सुनते ही दरख़्त झूमने लगते हैं शादमानियों से छुपा के रक्खूँ कहाँ तेरे इल्तिफ़ात को मैं बचूँ तो कैसे बचूँ इतनी बे-ध्यानियों से हिला के रख दिया मौजों की सर-कशी ने उसे उलझता बूढ़ा समुंदर कहाँ जवानियों से