मेरी सोच मुझे किस रुतबे पर ले आई दाइरा-ए-हस्ती इक नुक़्ते पर ले आई जब दुनिया को मैं ने कोर-ए-नज़र ठहराया मेरी आँखें अपने चेहरे पर ले आई मैं तो इक सीधी पगडंडी पर निकला था पगडंडी मुझ को चौराहे पर ले आई यूँ महसूस हुआ अपनी गहराई में जा कर जैसे कोई मौज किनारे पर ले आई सहरा में भी दीवारें सी फाँद रहा हूँ बीनाई किस अंधे रस्ते पर ले आई मैं ने नोच के फेंकीं जो शिकनें चादर से वो सब शिकनें दुनिया माथे पर ले आई काहकशाँ के ख़्वाब 'मुज़फ़्फ़र' देख रहा था और बेदारी रेत के टीले पर ले आई