मिरी तरफ़ से ज़रा अपने दिल को साफ़ करो जो हो सके तो ख़तावार को मु'आफ़ करो दिल-ओ-निगाह की वुस'अत इसी को कहते हैं हरीफ़ के भी महासिन का ए'तिराफ़ करो ब-ज़ोर-ए-तेग़ मुझे तुम झुका नहीं सकते ज़माने-भर को सफ़-आरा मिरे ख़िलाफ़ करो नज़र झुका के मिरे ज़िक्र पर सर-ए-महफ़िल तुम एक बार मोहब्बत का ए'तिराफ़ करो सलीब-ओ-दार मुक़द्दर हैं रास्त-गोई का ब-एहतियात सदाक़त का इंकिशाफ़ करो बजा हो मेरी हर इक बात लाज़मी तो नहीं तुम्हें ये हक़ है कि तुम मुझ से इख़्तिलाफ़ करो यहाँ ख़मोशी-ए-ग़ैरत को कौन समझेगा हर इक सितम का सर-ए-बज़्म इंकिशाफ़ करो झुलस न जाए नई पौद गुल्सिताँ की कहीं फ़ज़ा को ज़हर-ए-त’अस्सुब से पाक-ओ-साफ़ करो उतारो ज़ेहन में ग़ज़लों की गुल-बदन परियाँ 'शबाब' ज़ेहन को हर रात कोह-ए-क़ाफ़ करो